30 अप्रैल 2025 को चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के साथ विक्रम संवत् 2082 की शुरुआत हो चुकी है। हिंदू नव वर्ष पर लोग एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं। इसके साथ ही नव वर्ष का पहला नवरात्र, यानी चैत्र नवरात्र शुरू हो गया है। हर तरफ दुर्गा चालीसा पाठ की आवाज गूंज रही है। देवी दुर्गा के मंदिरों के साथ इस समय पूरे देश में रामनवमी पर श्रीराम और महावीर मंदिरों की छटा भी निखर रही है। इधर, बिहार में चैती छठ की भी तैयारी शुरू हो गई है। इस खबर में हम बता रहे हैं कि चैती छठ कब है और कैसे मनाएंगे? मान्यता और मनोकामना का महापर्व चैती छठ एक अप्रैल से शुरू होगा। हिंदू नव वर्ष की शुरुआत चैत्र माह से होती है। नए साल में अब फिर से छठ गीतों की गूंज सुनाई देगी। रविवार को चैती दुर्गा पूजा की कलश स्थापना के साथ ही मनोकामना पूर्ण होने के बाद चार दिवसीय चैती छठ की तैयारी शुरू हो जाएगी। कार्तिक महीने में होने वाले छठ की तरह चैती छठ में उतनी भीड़ नहीं होती है, क्योंकि चैती छठ मान्यता और मनोकामना का पर्व समझा जाता है। यह छठ सभी नहीं करते हैं। आम धारणा है कि जिनकी मनोकामना पूरी हो जाती है, वही चैती छठ करते हैं। हालांकि, धीरे-धीरे इस छठ के व्रतियों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है।
मान्यता है कि सुख-समृद्धि को लेकर मनोकामना करें और वह पूरी हो जाए तो वह परिवार मान्यताओं के अनुसार एक, तीन या पांच साल तक चैती छठ व्रत करता है। या फिर मनोकामना पूरी होने तक चैती छठ का अनुष्ठान भी लोग करते हैं। चैती छठ को पोखर पर कार्तिक छठ की तरह नहीं किया जाता है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के इक्का-दुक्का घाटों पर ही छठ होता है। कार्तिक महीने में मिलने वाले कई फल चैती माह में नहीं मिलते हैं, लिहाजा बाजार में उपलब्ध होने वाले फलों और पकवानों से पूजा होती है। इस बार लोक आस्था का चार दिवसीय महापर्व चैती छठ एक अप्रैल से शुरू होगा। पहले दिन, यानी सोमवार को नहाय-खाय होगा। नहाय-खाय के दिन व्रती स्नान-ध्यान कर नया वस्त्र धारण कर पर्व के निमित्त गेहूं धोकर सुखाती हैं। गेहूं सुखाने में भी काफी निष्ठा रखनी पड़ती है। व्रती भोजन में अरवा चावल का भात और कद्दू की सब्जी खाती हैं। नहाय-खाय के अगले दिन, दो अप्रैल मंगलवार को खरना होगा। इस दिन व्रती दिनभर उपवास रखेंगी। शाम में खीर और सोहारी का प्रसाद बनेगा। यह प्रसाद मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी के जलावन से बनाया जाता है। प्रसाद बन जाने के बाद व्रती एक बार फिर स्नान-ध्यान कर रात में छठी मईया को प्रसाद का भोग अर्पित करती हैं।
भोग लगाने के बाद वह भी इसी प्रसाद को ग्रहण करती हैं और इसी के साथ 36 घंटे का निर्जला व कठिन अनुष्ठान शुरू हो जाता है। खरना के अगले दिन बुधवार को संध्याकालीन अर्घ होगा। परिवार के लोग डाला- दउड़ा लेकर नंगे पांव नदी, तालाब, पोखरों के किनारे पहुंचते हैं। जहां व्रती महिलाएं पोखर या तालाब या अपने घर में बनाए गए जल स्त्रोत में स्नान कर पानी में घंटों खड़ी रह सूर्य देवता की आराधना करती हैं। जब सूरज ढलने लगता है, तब क्रमवार रूप से सभी डाला और दउड़ों को जल का आचमन कर अर्घ देती हैं। कुछ लोग पूरी रात पोखर पर ही रुक जाते हैं, तो अधिकांश लोग वापस घर जाने के बाद एक बार फिर अहले सुबह वह अपने परिजनों के साथ घाट पर पहुंचकर सूर्यदेव की आराधना में जुट जाते हैं। जैसे ही आसमान में सूरज की लालिमा दिखती है, सभी डाला व दउड़ों के साथ उगते हुए सूर्य को अर्घ देते हैं। इसी के साथ चार दिवसीय पर्व संपन्न हो जाता है। व्रती घर में अपने कुलदेवी और देवताओं की पूजा कर छठ का प्रसाद खाती हैं, उसके बाद ही अनाज ग्रहण करती हैं।