कर्नाटक पुलिस ने बेंगलुरु में इंफोसिस के को-फाउंडर क्रिस गोपालकृष्णन, भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के पूर्व निदेशक बलराम पी और 16 अन्य के खिलाफ SC/ST अत्याचार अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया है। यह मामला 71वें सिटी सिविल एंड सेशन कोर्ट (सीसीएच) के निर्देश पर सदाशिव नगर पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया था। शिकायतकर्ता दुर्गप्पा, जो आदिवासी बोवी समुदाय से हैं, का आरोप है कि 2014 में उन्हें एक हनी ट्रैप मामले में झूठा फंसाया गया और इसके बाद उन्हें भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) से बर्खास्त कर दिया गया। दुर्गप्पा का कहना है कि उन्हें इस दौरान गाली-गलौच और धमकियां भी दी गईं।
दुर्गप्पा ने अपनी शिकायत में यह भी कहा कि उनके साथ यह सारी घटनाएँ आदिवासी होने के कारण भेदभावपूर्ण तरीके से हुईं। उनका आरोप है कि उन्हें जानबूझकर फंसाया गया और उनके खिलाफ गलत आरोप लगाए गए, जिसके कारण न केवल उनकी नौकरी चली गई, बल्कि उन्हें मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। यह मामला अब कानूनी दायरे में है, और कर्नाटक पुलिस इस आरोप की जांच कर रही है।
इसके अलावा, इस मामले में कई अन्य प्रमुख व्यक्ति भी शामिल हैं, जिनके खिलाफ आरोप लगाए गए हैं। इनमें गोविंदन रंगराजन, श्रीधर वारियर, संध्या विश्वेश्वरैह, हरि केवीएस, दासप्पा, बलराम पी, हेमलता मिशी, चट्टोपाध्याय के, प्रदीप डी सावकर और मनोहरन के जैसे व्यक्ति शामिल हैं। इन सभी के खिलाफ भी SC/ST अत्याचार अधिनियम के तहत केस दर्ज किया गया है। इस मामले में आरोपों की गंभीरता को देखते हुए पुलिस प्रशासन ने जांच प्रक्रिया को तेज कर दिया है।
क्रिस गोपालकृष्णन का नाम इस मामले में मुख्य आरोपियों में शामिल है। गोपालकृष्णन, जो इंफोसिस के को-फाउंडर रहे हैं, ने 2007 से 2011 तक इंफोसिस के सीईओ और प्रबंध निदेशक के रूप में कार्य किया। इसके बाद 2011 से 2014 तक उन्होंने कंपनी के उपाध्यक्ष के रूप में भी अपनी भूमिका निभाई। गोपालकृष्णन ने IIT मद्रास से फिजिक्स और कंप्यूटर साइंस में मास्टर डिग्री प्राप्त की है और वह भारतीय राष्ट्रीय इंजीनियरिंग अकादमी (INAE) के फेलो भी हैं। 2011 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उनकी प्रतिष्ठा एक उद्योगपति और वैज्ञानिक के रूप में रही है, और अब इस मामले ने उनकी छवि पर सवाल खड़ा कर दिया है।
यह मामला केवल कर्नाटक पुलिस के लिए ही नहीं, बल्कि देश के प्रतिष्ठित शैक्षिक और व्यावसायिक संस्थानों के लिए भी एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा बन गया है। जहां एक ओर यह आरोप आदिवासी समुदाय के खिलाफ भेदभाव और अत्याचार की ओर इशारा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यह संस्थाओं के भीतर के संघर्ष और निजी रिश्तों को भी उजागर कर रहे हैं।
इस विवाद ने यह सवाल भी खड़ा किया है कि क्या बड़े संस्थानों में आदिवासी और अन्य पिछड़ी जातियों के कर्मचारियों को समान अधिकार मिलते हैं, या उन्हें मानसिक और सामाजिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। यह मामला यह भी दिखाता है कि बड़े और प्रतिष्ठित संस्थानों के नेताओं और अधिकारियों पर भी आरोप लग सकते हैं, जो कभी आदर्श और प्रतिष्ठा के प्रतीक माने जाते हैं।
अब यह देखना बाकी है कि कर्नाटक पुलिस इस मामले में आगे किस तरह की कार्रवाई करती है और क्या आरोपियों को सजा मिलती है या नहीं। मामले की गहनता को देखते हुए यह काफ़ी महत्वपूर्ण है कि न्यायिक प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से चले, ताकि सही इंसाफ मिल सके।