जाति आधारित जनगणना को लेकर चल रही चर्चाओं के बीच सरकारी अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि इस प्रक्रिया के लिए 70 साल पुराने जनगणना कानून में किसी तरह के बदलाव की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्होंने बताया कि 1948 में बना यह कानून, जिसे आखिरी बार 1994 में संशोधित किया गया था, केंद्र सरकार को जनगणना फॉर्म में शामिल किसी भी प्रकार की जानकारी मांगने की अनुमति देता है। ब्रिटिश शासनकाल में 1881 से लेकर 1931 तक की जनगणनाओं में सभी जातियों की गिनती की जाती थी। लेकिन आजादी के बाद 1951 में पहली बार हुई जनगणना के दौरान, सरकार ने केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गिनती का निर्णय लिया, जबकि अन्य जातियों की गणना नहीं की गई।
1961 में केंद्र सरकार ने राज्यों को अनुमति दी कि यदि वे चाहें तो अपनी-अपनी ओबीसी सूची तैयार करने के लिए स्वतंत्र रूप से जाति आधारित सर्वेक्षण कर सकते हैं। अब, छह दशकों से अधिक समय बाद, विभिन्न राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों की मांगो को देखते हुए केंद्र सरकार ने अगले राष्ट्रीय जनगणना कार्यक्रम में जाति आधारित गणना को शामिल करने का निर्णय लिया है।अधिकारियों ने जनगणना अधिनियम की धारा 8 का हवाला देते हुए बताया कि जनगणना अधिकारी “ऐसे सभी प्रश्न पूछ सकता है जिनके लिए उसे निर्देशित किया गया हो” और नागरिकों को उन प्रश्नों का उत्तर देना कानूनी रूप से अनिवार्य है, जब तक कि उनके पास इसके लिए कोई वैध अपवाद न हो।
हालांकि, किसी महिला से उसके पति या दिवंगत पति का नाम बताने की बाध्यता नहीं है, और न ही किसी महिला को उन नामों का खुलासा करना होगा जिन्हें वह सामाजिक रिवाजों के अनुसार नहीं बताना चाहती।इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि जनगणना के दौरान दी गई कोई भी जानकारी गोपनीय होती है और उसे किसी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।गौरतलब है कि यह जनगणना प्रक्रिया अप्रैल 2020 में शुरू होनी थी, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण इसे स्थगित कर दिया गया था।