10 साल के थे मनोज कुमार, जब उन्होंने दिलीप कुमार की फिल्म ‘शबनम’ देखी, उसी दिन तय कर लिया कि कभी हीरो बना तो अपना नाम मनोज कुमार ही रखूंगा। किस्मत ने उनकी सुन ली और वह हीरो बन भी गए। एक टीवी चैनल के लिए मैंने सिने सितारों पर एक डॉक्यूमेंट्री सीरीज ‘बॉलीवुड बाजीगर’ का निर्माण व निर्देशन किया था, मनोज कुमार का ये इंटरव्यू उसी सिलसिले में लिया गया था। हां, बिल्कुल याद है। पाकिस्तान से उजड़ने के बाद हम दिल्ली आए थे। अपने पिताजी की उंगली थामे मैं 15 अगस्त 1947 को लाल किले भी गया था। देश में फहराया पहला तिरंगा मैंने वहीं देखा। पता नहीं उस दिन ऐसा क्या हुआ कि वह तिरंगा मेरे जेहन से कभी उतरा ही नहीं। ‘फैशन’ में मैं हीरो नहीं था। ‘कांच की गुड़िया’ में मैं हीरो बना लेकिन लोगों की दुआएं मुझे फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ से मिलनी शुरू हुई। ‘वो कौन थी’को मैं ऐसी फिल्म मानता हूं जिसने मेरी जिंदगी की राह में हरियाली कर दी। ये फिल्में मेरे जीवन की निर्णायक फिल्में रहीं। आप यकीन नहीं करेंगे स्कूल में एक बार मुझे भगत सिंह बनने का मौका मिला तो मैं भाग खड़ा हुआ था। लेकिन, परदे पर वही मौका जब मुझे फिर से मिला तो मैं तो भगत ही बन गया था। मुझे याद नहीं कि इस फिल्म को करते समय मुझे कुछ और भी सूझता हो। मैं दिन-रात, सोते-जागते बस भगत सिंह ही बना रहता था। हां, कलाकारों के वह बहुत बड़े कद्रदान थे। मुझे बुलाया और मुझसे कहा, “मैंने तुम्हारी फिल्म ‘शहीद’ देखी है। मेरा एक नारा है, ‘जय जवान जय किसान’।
मैं चाहता हूं कि तुम इस पर एक फिल्म बनाओ।” मैं वहां से निकला। मुंबई मुझे ट्रेन से ही वापस आना था। दिल्ली स्टेशन के करीब दुकान से मैंने एक रजिस्टर खरीदा और रात से लेकर सुबह तक में मैंने फिल्म ‘उपकार’ की पूरी पटकथा लिख डाली थी। इसका बाद में तेलुगु रीमेक भी बना। ‘उपकार’ से ही राजेश खन्ना को डेब्यू करना था, बाद में ये रोल प्रेम चोपड़ा ने किया। पहले भी होती रही होंगी फिल्में इस दौरान रिलीज। लेकिन, फिल्म ‘उपकार’ ने देशभक्ति का एक नया रूप लोगों को दिखाया। मेरा यही मानना रहा है कि हर भारतीय सादे लिबास में एक फौजी है और जो जहां है, वहीं अगर ईमानदारी, सच्चाई और पूरी निष्ठा से खुद को मिला काम करता रहे तो इस देश को दुनिया का नंबर वन देश बनने से कोई रोक नहीं सकता। दिलीप साब की फिल्म ‘शहीद’ में कामिनी जी उनकी हीरोइन थीं। मेरी ‘शहीद’ में इसी नाते वह मेरी मां बनीं। उनका मेरे ऊपर बहुत आशीर्वाद रहा है। हिंदी सिनेमा में उन्हें मेरी फिल्मी मां भी कहा जाता है। आपको उनसे मेरे बारे में जरूर बात करनी चाहिए। दिलीप साब ने फिल्म ‘बैराग’ (1976) के बाद से फिल्में करनी बंद कर दी थीं। उनको यकीन ही नहीं हो रहा था कि लोगों को उनके ट्रिपल रोल वाली फिल्म भी पसंद नहीं आएगी। मेरी उनसे पहले भी बात होती रहती थी, लेकिन फिल्म ‘क्रांति’ पहली फिल्म थी जिसमें काम करने का प्रस्ताव लेकर मैं उनसे मिला। दिलीप साब ने पहले तो मना ही कर दिया था। मैंने उनको यही कहा कि ये एक मजबूत जमीन पर लिखी कहानी है। अगर हम मिलकर मिट्टी पर हल चलाएंगे तो मेरा यकीन है कि इसमें से सोना निकलेगा। दिलीप साब की ये खासियत है कि वह कहानी सुनकर थोड़ा समय लेते हैं, फैसला करने में लेकिन सलीम-जावेद की लिखी फिल्म ‘क्रांति’ की कहानी सुनते ही उन्होंने हां कर दी।