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कलाकारों का राजनीतिक दबाव में इस्तेमाल गलत: BJP का डीके शिवकुमार के बयान पर पलटवार

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Using artists for political pressure is wrong

यह घटना कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार की एक टिप्पणी से जुड़ी है, जिसने राजनीतिक और फिल्म उद्योग के बीच एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। शिवकुमार ने हाल ही में बंगलूरू अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के उद्घाटन के दौरान फिल्म उद्योग को लेकर अपनी नाराजगी व्यक्त की। उनका कहना था कि फिल्म महोत्सव में कम लोग आए थे और खासकर कांग्रेस पार्टी के लिए चल रही मेकेदातु पदयात्रा में फिल्म उद्योग के लोग शामिल नहीं हुए, जो उन्हें अस्वीकार्य था। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार के पास फिल्म शूटिंग की अनुमति देने या न देने का अधिकार है, और यह कलाकारों पर निर्भर नहीं है कि वे फिल्म बनाना जारी रखें या नहीं। शिवकुमार ने यह साफ किया कि वह फिल्म बिरादरी से उम्मीद करते हैं कि वे कांग्रेस पार्टी के आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लें, वरना वे उन कलाकारों को मान्यता नहीं देंगे, जो ऐसा नहीं करेंगे।

इस बयान को लेकर विपक्षी भाजपा के नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी। भाजपा के नेता आर. अशोक ने शिवकुमार की टिप्पणी को एक “बुरी मानसिकता” और “धमकी” के रूप में पेश किया। उनका कहना था कि कलाकारों को राजनीति में किसी पार्टी का समर्थन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि फिल्मों की सफलता या असफलता कलाकारों की पसंद और मेहनत पर निर्भर करती है, न कि उनके राजनीतिक रुझान पर। अशोक ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक पोस्ट के जरिए यह कहा कि “कलाकार कांग्रेस पार्टी के गुलाम नहीं हैं” और उन्हें सम्मान से पेश आना चाहिए। उनका कहना था कि कलाकारों को पार्टी कार्यकर्ताओं की तरह व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, और यह लोकतंत्र के खिलाफ है कि कलाकारों को किसी आंदोलन में भाग लेने के लिए मजबूर किया जाए।

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इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा कि अगर अभिनेता अंबरीश जीवित होते, तो वे इस बयान का उचित जवाब देते। अशोक ने कर्नाटक फिल्म उद्योग से अपील की कि वे इस तरह के बयानों की निंदा करें, क्योंकि यह कलाकारों का अपमान है और इससे पूरे उद्योग की छवि को नुकसान पहुंच सकता है।

इस विवाद में जनता दल सेक्युलर के नेता निखिल कुमारस्वामी भी कूद पड़े और कहा कि राज्य में चल रहे किसी भी आंदोलन का समर्थन करना अभिनेताओं का व्यक्तिगत अधिकार है। उनका कहना था कि कुछ कलाकारों ने इस लिए इन आंदोलनों में भाग नहीं लिया क्योंकि वे किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ना नहीं चाहते थे, और यह उनकी व्यक्तिगत पसंद है। उनका यह भी कहना था कि फिल्म उद्योग को इस बात को समझना चाहिए और कलाकारों के व्यक्तिगत रुख का सम्मान करना चाहिए। निखिल कुमारस्वामी का कहना था कि कलाकारों को किसी एक पार्टी के साथ खड़ा होने के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता।

डीके शिवकुमार की टिप्पणी के बाद उनके कार्यालय ने भी सफाई दी। उनका कहना था कि यह फिल्म महोत्सव किसी एक पार्टी या राजनेता के लिए नहीं था, बल्कि यह पूरे फिल्म उद्योग का एक कार्यक्रम था। हालांकि, शिवकुमार के अनुसार, जब महोत्सव में केवल कुछ ही प्रमुख अभिनेता आए, तो सरकार को यह सवाल उठाना पड़ा कि अगर फिल्म उद्योग के लोग इस कार्यक्रम में रुचि नहीं दिखाते हैं, तो सरकार इस कार्यक्रम का आयोजन क्यों करें? उन्होंने यह भी कहा कि यदि फिल्म उद्योग के लोग इस कार्यक्रम में शामिल नहीं होते, तो यह सरकार के लिए एक चेतावनी थी कि भविष्य में इस तरह के आयोजनों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए।

शिवकुमार ने मेकेदातु पदयात्रा के संदर्भ में भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि इस पदयात्रा का उद्देश्य बंगलूरू के लिए पीने का पानी लाना था, और यह राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण लड़ाई थी। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि जब सिद्धारमैया और उन्होंने 150 किलोमीटर की लंबी पदयात्रा की, तो फिल्म उद्योग से किसी भी प्रमुख व्यक्ति ने उनका समर्थन नहीं दिखाया, जबकि उन्होंने सबको निमंत्रण दिया था। इस बात से वह नाराज थे और इसे फिल्म उद्योग के प्रति एक उपेक्षापूर्ण रवैया मानते थे।

इस बयान को लेकर फिल्म उद्योग की प्रतिक्रिया अभी तक सामने नहीं आई है, लेकिन यह मुद्दा अब राज्य की राजनीति और फिल्म उद्योग के बीच तनाव को और बढ़ा सकता है। यह एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है कि क्या कलाकारों को राजनीतिक दबाव में डालना ठीक है और क्या यह उनके स्वतंत्र विचार और काम को प्रभावित करता है।

विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच यह टकराव कर्नाटक में राजनीति और फिल्म उद्योग के बीच बढ़ते मतभेदों को उजागर करता है। यह विवाद इस बात पर भी सवाल उठाता है कि फिल्म उद्योग को किस हद तक राजनीतिक प्रभाव से बचाना चाहिए और क्या कलाकारों को किसी खास पार्टी या आंदोलन के समर्थन में खड़ा होने के लिए दबाव डाला जा सकता है।

यह घटना कर्नाटक में कलाकारों और राजनीति के बीच बढ़ते तनाव को एक नई दिशा दे सकती है। अब देखना यह होगा कि फिल्म उद्योग और राजनीतिक दल इस विवाद पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं और क्या इससे आगे चलकर किसी प्रकार के राजनीतिक या सामाजिक बदलाव आते हैं।

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